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निर्वाहिका एवं भरण-पोषण

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 24-Jul-2025

X बनाम Y

"तुम पढ़ी-लिखी हो। तुम्हें दान पर निर्भर नहीं रहना चाहिये। तुम्हें धनोपार्जन करना चाहिये तथा सम्मान से जीना चाहिये"।

भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन एवं न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन एवं एन.वी. अंजारिया ने पृथक रह रही पत्नी को 4 करोड़ रुपये की एकमुश्त राशि या फ्लैट के स्वामित्व के बीच विकल्प देने के बाद अपना आदेश सुरक्षित रख लिया, जिसमें अतिशय भरण पोषण के दावों के बजाए आत्मनिर्भरता के द्वारा आवश्यकता पूर्ति पर बल दिया गया।

एक्स बनाम वाई (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • पृथक होने से पहले इस कपल की शादी को सिर्फ़ 18 महीने ही हुए थे।
  • पति ने अपनी पत्नी पर मानसिक रूप से बीमार होने का आरोप लगाते हुए और उसे "सिज़ोफ्रेनिया" बताते हुए शादी को रद्द करने की माँग की।
  • महिला ने इन आरोपों से इनकार किया तथा न्यायालय से पूछा कि क्या वह अस्वस्थ लग रही है।
  • दोनों पक्ष शुरू में आपसी सहमति से विवाह-विच्छेद के लिये एक समझौते पर सहमत हुए थे।
  • इस समझौते के अंतर्गत, पत्नी को पूर्ण और अंतिम समझौते के रूप में मुंबई के कल्पतरु हैबिटेट में एक फ्लैट मिलना था।
  • दोनों पक्षों को अपने बीच लंबित 20 से ज़्यादा मामलों को वापस लेना था।
  • हालाँकि, दिल्ली के एक न्यायालय द्वारा आपसी सहमति से विवाह-विच्छेद के लिये संस्थित पहले आवेदन को स्वीकृति मिलने के बाद, पत्नी ने दूसरे आवेदन के लिये अपनी सहमति वापस ले ली और बेहतर वित्तीय समझौते की माँग की।
  • उसके पास MBA की डिग्री है और वह IT क्षेत्र में कार्य कर चुकी है।
  • वह वर्तमान में मुंबई के उस विवादित फ्लैट में रह रही थी जहाँ दो पार्किंग स्थल थे।
  • उसके पति ने उसके विरुद्ध FIR दर्ज कराई थी, जिसका दावा उसने अपनी रोज़गार क्षमता को प्रभावित करने के लिये किया था।
  • वर्ष 2015-16 के दौरान पति की घोषित आय ₹2.5 करोड़ थी जिसमें ₹1 करोड़ का बोनस भी शामिल था।
  • महिला के अनुसार, पति बहुत अमीर था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली उच्चतम न्यायालय की पीठ ने महिला की मांगों की कड़ी आलोचना की:
    • "शादी सिर्फ़ 18 महीने चली और आप एक करोड़ रुपये प्रति माह मांग रही हैं?"
    • न्यायालय ने शादी की छोटी अवधि को देखते हुए मांग की राशि (₹12 करोड़ और मुंबई में एक फ्लैट) पर प्रश्न किया।
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि शिक्षित महिलाओं को आत्मनिर्भर होना चाहिये:
    • "आप बेहतर पढ़ी-लिखी हैं। आपको अनुदान पर निर्भर नहीं रहना चाहिये। आपको कमाना चाहिये और सम्मान के साथ जीना चाहिये।"
    • "आप बेंगलुरु और हैदराबाद जैसी जगहों पर नौकरी के योग्य हैं। कार्य क्यों नहीं करतीं?"
    • न्यायालय ने कहा कि IT सेक्टर में माँग है और उनको रोजगार ढूँढ़ना चाहिये।
  • न्यायालय ने दो विकल्प प्रस्तुत किये:
    • बिना किसी विधिक बाधा के फ्लैट स्वीकार करें, या
    • ₹4 करोड़ का एकमुश्त समझौता स्वीकार करें।
  • न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि शिक्षित एवं सक्षम व्यक्तियों को बेरोज़गारी का विकल्प नहीं चुनना चाहिये तथा पुनः अत्यधिक भरण-पोषण का दावा नहीं करना चाहिये।
  • पीठ ने निर्भरता के बजाय आत्मनिर्भरता के सिद्धांत पर बल दिया, विशेष रूप से योग्य पेशेवरों के लिये।

भारत में विभिन्न पर्सनल लॉ के अधीन भरण-पोषण एवं निर्वाहिका के लिये विधिक प्रावधान क्या हैं?

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955:

  • धारा 24: लंबित कार्यवाही के दौरान अंतरिम भरण-पोषण।
  • धारा 25: विवाह-विच्छेद के बाद स्थायी निर्वाहिका और भरण-पोषण।
  • यह हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों पर लागू होता है।
  • कोई भी पति या पत्नी भरण-पोषण का दावा कर सकता है।

विशेष विवाह अधिनियम, 1954:

  • धारा 36: अंतरिम भरण-पोषण।
  • धारा 37: विवाह-विच्छेद के बाद स्थायी निर्वाहिका।
  • अंतर-धार्मिक विवाहों पर लागू।
  • हिंदू विवाह अधिनियम के समान प्रावधान।

भारतीय विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1869 (ईसाइयों के लिये):

  • धारा 36: अंतरिम भरण-पोषण।
  • धारा 37: स्थायी निर्वाहिका।
  • न्यायालय दोनों पति-पत्नी की आय/संपत्ति पर विचार करते हैं।

पारसी विवाह और विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1936:

  • धारा 39: स्थायी निर्वाहिका प्रावधान।
  • विवाह-विच्छेद के बाद पत्नी भरण-पोषण का दावा कर सकती है।
  • विवाह के दौरान जीवन स्तर पर विचार किया जाता है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ:

  • मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 पर आधारित।
  • मुस्लिम महिला (विवाह-विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986।
  • इद्दत अवधि के दौरान भरण-पोषण प्रदान करता है।

हिंदू पर्सनल लॉ के अंतर्गत भारतीय न्यायालय भरण-पोषण और निर्वाहिका की राशि का निर्धारण कैसे करते हैं?

हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 23 के अंतर्गत भरण-पोषण की मात्रा:

  • हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 23 के अंतर्गत भरण-पोषण राशि का निर्धारण एक व्यापक मूल्यांकन ढाँचे के अनुसार किया जाता है। न्यायालयों को दोनों पक्षों की स्थिति एवं सामाजिक स्थिति का मूल्यांकन करना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भरण-पोषण उनके जीवन स्तर के अनुरूप हो।
  • दावेदार की उचित आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं की सावधानीपूर्वक जाँच की जाती है, तथा यह विचार किया जाता है कि क्या परिस्थितियों में पृथक रहने की व्यवस्था उचित है।
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय दावेदार के मौजूदा वित्तीय संसाधनों, जिनमें संपत्ति का मूल्य, आय के स्रोत और व्यक्तिगत आय शामिल हैं, का आकलन करते हैं, साथ ही अधिनियम के अंतर्गत भरण-पोषण के अधिकारी व्यक्तियों की कुल संख्या पर भी विचार करते हैं ताकि सभी लाभार्थियों के बीच उचित वितरण सुनिश्चित हो सके।

निर्वाहिका निर्धारण के लिये उच्चतम न्यायालय के लचीले दिशानिर्देश:

  • उच्चतम न्यायालय ने निर्वाहिका निर्धारित करने के लिये कठोर सूत्रों के बजाय लचीले सिद्धांत स्थापित किये हैं, तथा भरण-पोषण समझौतों के लिये एक समग्र दृष्टिकोण पर बल दिया है।
  • ये दिशानिर्देश दोनों पति-पत्नी की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति, पत्नी और संतान की मूलभूत भविष्य की आवश्यकताओं और दोनों पक्षों की योग्यता एवं रोज़गार की स्थिति पर विचार करते हैं।
  • न्यायालय आय के साधनों एवं संपत्ति के स्वामित्व, विवाह के दौरान पत्नी के जीवन स्तर और पारिवारिक उत्तरदायित्व के लिये किये गए किसी भी रोज़गारपरायणता की जाँच करते हैं।
  • ये दिशानिर्देश गैर-कामकाजी पत्नियों के लिये उचित मुकदमेबाजी लागतों को भी ध्यान में रखते हैं तथा निष्पक्ष एवं न्यायसंगत समझौते सुनिश्चित करने के लिये पति की वित्तीय क्षमता और वर्तमान भरण-पोषण दायित्वों का गंभीरता से आकलन करते हैं।

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 - स्थायी निर्वाहिका ढाँचा:

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 25, विवाह-विच्छेद या पृथक्करण के बाद स्थायी निर्वाहिका और भरण-पोषण के लिये एक व्यापक ढाँचा प्रदान करती है।
  • यह प्रावधान पति या पत्नी दोनों में से किसी एक को भरण-पोषण के लिये आवेदन करने की अनुमति देता है, जो एकमुश्त भुगतान के रूप में या आवेदक के जीवनकाल तक की अवधि के लिये आवधिक भुगतान के माध्यम से प्रदान किया जा सकता है।
  • न्यायालय प्रतिवादी की आय और संपत्ति, आवेदक की वित्तीय स्थिति, दोनों पक्षों के आचरण और अन्य प्रासंगिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए व्यापक विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करते हैं।
  • यह धारा संशोधन प्रावधानों के माध्यम से लचीलेपन को भी शामिल करती है, जिससे न्यायालयों को बदली हुई परिस्थितियों, पुनर्विवाह या विशिष्ट आचरण संबंधी मुद्दों के कारण भरण-पोषण के आदेशों में परिवर्तन करने या उन्हें रद्द करने की अनुमति मिलती है।